अलवर जिले का सबसे बड़ा लख्खी भर्तृहरि मेला हर साल भर्तृहरि धाम में भरता है यह स्थान सरिस्का की वादियों के मध्य स्थित है , जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर अलवर- जयपुर मार्ग स्थित सरिस्का वन क्षेत्र में भर्तृहरि धाम मंदिर स्थापित है. यह धाम अलवर जिला ही नहीं, बल्कि देश भर के लोगों की आस्था का केंद्र माना जाता है. मान्यता है कि भर्तृहरि धाम मंदिर 200 साल से भी ज्यादा पुराना है. मंदिर के महंत कल्लूराम ने बताया कि पौराणिक कथा के अनुसार उज्जैन के महाराजा भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर अलवर की इस तपोभूमि पर समाधि ली थी. उनकी यही समाधि स्थल भर्तृहरि धाम के नाम से विख्यात है.
योगीराज भर्तृहरि का समाधि स्थल पारंपरिक राजस्थानी शैली में बना है. यह मंदिर नाथ संप्रदाय से जुड़ा है, जिसके कारण नाथ संप्रदाय के साधु संत यहां दूर-दूर से दर्शन के लिए आते हैं. इस बार मेले का उद्घाटन केंद्रीय मंत्री , अलवर सांसद भूपेंद्र यादव और वन राज्य मंत्री संजय शर्मा सहित प्रतिपक्ष नेता टीकाराम जूली ने किया ।
यहां हर साल भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भर्तृहरि बाबा का मेला लगता है , लोक देवता बाबा भर्तृहरि बाबा का स्थान सरिस्का नेशनल पार्क में स्थित है, जो सबसे प्राचीन पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। भर्तृहरि धाम का मंदिर नाथ सम्प्रदाय और योगियों के लिए काफी महत्व रखता हैं मेले में दूर दूर अलग अलग राज्यों से साधु संतो सहित श्रद्धालुओं की भीड़ पहुंचती है ।
यहां श्रद्धालु अपनी अपनी मन्नत के चलते दंडोती देते हुए भी पहुंचते है वही बाबा के दरबार में अखंड ज्योत के समक्ष धोक लगाकर आशीर्वाद प्राप्त करते है , मेले में हर तरफ धार्मिक आयोजन चल रहे होते है , कही लंगर भोजन प्रसादी है तो कही ठंडे मीठे पानी की प्याऊ लगी है , प्रसाद की दुकानें सजी है तो कही सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे , यहां कनफेडे साधू और नाथ संप्रदाय से जुड़े संतो से माहौल भक्तिमय बना रहता है ।
भर्तृहरि मंदिर तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरा होने के कारण श्रदालुओं के लिए धार्मिक स्थल के साथ साथ एक पर्यटक स्थल के रूप में लोकप्रिय बना हुआ है। बाबा भर्तृहरि की समाधि के पीछे पवित्र गंगा अनवरत बहती रहती है। पहाड़ियों पर झरने के साथ स्थित भर्तृहरि मंदिर, मन को शांत करने के एक अच्छा स्थान है।
आपको बताते है कोन थे भर्तृहरि , दरअसल उज्जैन के महाराज भृतहरि ने अपनी पत्नी के वियोग में वैराग्य धारण कर राजपाट छोड़ सन्यास पर निकल गए थे , इस दौरान उन्होंने अलवर के सरिस्का के जंगलों में घोर तपस्या की ओर यही समाधि में लीन हो गए थे तब से यह स्थान महाराजा भरतहरी की तपो भूमि के रूप में जाना जाता है , वह धर्म और नीति शास्त्र के ज्ञाता थे , महाराजा भर्तृहरि के पिता महाराज गंधर्वसेन थे। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाट भर्तृहरि को प्राप्त हुआ। प्रचलित कथाओं के अनुसार भर्तृहरि के दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी एक पिंगला से उन्होंने विवाह किया वह काफी बहुत सुंदर थी राजा उससे बहुत प्यार और विश्वास करते थे ।
उनके शासन काल में गुरु गोरखनाथ शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए भर्तृहरि के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने उनका भव्य स्वागत और अपार सेवा की। राजा की सेवा से गुरु गोरखनाथ अति प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा को अमरफल देकर बताया कि जो इसे खा लेगा, वह कभी बूढ़ा, रोगी नहीं होगा, हमेशा जवान व सुन्दर रहेगा। राजा ने वह फल अपनी पत्नी पिंगला को दिया लेकिन उनकी पत्नी ने वह अपने प्रेमी को दे दिया जिसके बाद यह उस प्रेमी ने एक वैश्या को दे दिया ,आखिर में वह फल वह वैश्या महाराज के पास पहुंची और उनसे कहा महाराज यह फल आप खा लीजिए क्युकी मैं यह फल खाकर अमर नही होना चाहती मैं इस वैश्यावृति के धंधे से परेशान हु , आप इस फल को खाकर जनता की सेवा कर पाएंगे , राजा उस फल को देखकर हतप्रद रह गए क्योंकि वह फल उन्होंने अपनी पत्नी को दिया था , इसी फल से राजा को अपनी रानी पिंगला की ओर से प्रेम में दिए जा रहे धोखे का पता चला। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य अपने भाई विक्रमादित्य को सौंपकर गुफा में 12 वर्षों उन्होंने तपस्या की और समाधि में लीन हो गए थे ।