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Bhanwar Jitendra Singh strong Leader of Congress

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इस समय देश में और प्रदेश में दो तरह की ही चर्चा हर खास और आम के बीच है। यदि आप क्रिकेट के दीवाने है तो होने वाले क्रिकेट विश्वकप में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्यारह खिलाडियों पर आपकी नजर होगी वहीं यदि आप राजनीति में रूचि रखते है तो अलवर जिले और आसपास के दो नए बने जिलों के कुल 11 विधानसभाओं में जीतने वाले विधायको पर आपकी नजर होगी। हालांकि दो नए जिले अब अलवर का हिस्सा नहीं है, लेकिन इन सीटों के राजनैतिक समीकरण सभी 11 सीटों के हिसाब से काम कर रहे है। साथ ही मतदाता भी सभी विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों के चयन से लेकर मतदान और परिणाम पर पूरी नजर टिकाए रहेगा।
जिस प्रकार क्रिकेट के मैदान में 11 खिलाडी आपसी तालमेल से टीम को जीत दिलाने के साथ ही अपने प्रदर्शन को भी बेहतर बनाते है। उसी प्रकार अलवर की 11 सीटों पर भी तमाम प्रत्याशी अपना भविष्य देख रहे है।
क्रिकेट हो या राजनीति दोनों में ही पिछले प्रदर्शन के आधार पर बडे बडे अनुमान लगाए जाते है। ऐसे में अलवर शहर की बात की जाए तो यहां बीते साढे दशक में हुए चार विधानसभा चुनावों में 6 बार फूल यानि कमल का फूल खिला लेकिन बात कि जाए फूलबाग की जाए तो यहां के जितेंद्र सिंह अपने राजनैतिक कद और सरल स्वभाव के कारण समीकरणों को बडी आसानी से अपने पक्ष में कर लेते है। इनको राजनीति विरासत में मिली है और राजपरिवार से होने के कारण आमजन का स्नेह भी मिला।

भाजपा ने खेला ब्राह्मण कार्ड- बीते साढे चार दशक में हर बार वैश्य पर भरोसा जताने वाली भाजपा ने साल 2018 में पहली बार गैर वैश्य यानि ब्राह्मण प्रत्याशी पर दांव खेल कर सबको चैंका दिया। वहीं नतीजों ने भाजपा के इस दांव पर सफलता की मोहर भी लगा दी।

बडे कारणों से ही मुरझाया कमल-

अलवर शहर को सदा से ही भाजपा का गढ माना जाता रहा है। हांलाकि इस सीट पर बीते 9 विधानसभा चुनावों में से 3 बार कांग्रेस ने सेंध लगाई है, लेकिन इसके लिए बडी वजह होना बेहद जरूरी रहा। साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में कांग्रेस के लिए सहानुभूति की लहर के बाद अगले ही साल हुए चुनावों में कमल का फूल अलवर शहर में मुरझा गया। वहीं इसके बाद अलवर में साल 1998 और 2003 के चुनावों में फूलबाग ने कमल के फूल को अपने बगीचे से बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन इसके बाद जब फूलबाग को दिल्ली रास आने लगा तो हिन्दूवादी नेता बनवारी लाल सिंघल ने भाजपा को खोई हुई साख फिर से लौटाई। साल 2013 के चुनावों में तो सिंघल जीत के अंतर के मामले में प्रदेशभर में दूसरे स्थान पर रहें।

अचानक गायब भी हुए धुरंधर-

अलवर शहर की राजनीति में टिकटों के वितरण का प्रत्याशियों की जीत में बडा अहम योगदान रहा है। दो बार लगातार विधायक रहे सिंघल का अचानक टिकट काट दिया गया। हांलाकि सिघंल ने फिर भी भाजपा ने ही आस्था बनाए रखी और मजबूती से संगठन में काम करते रहे। अब समय आने पर सिंघल टिकट के लिए ताल भी ठोक रहे है। जबकि इससे पहले जितेंद्र सिंह दो बार अलवर से विधायक रहे ,लेकिन अचानक दिल्ली के सफर पर निकले सिंह ने देश की राजनीति में अपना कदम रख दिया और एक बार अलवर से सांसद बनकर अलवर जिले से पहली बार केंद्रीय मंत्री भी बने। इसके अलावा अलवर नगर परिषद के सभापति रहे अजय अग्रवाल भी फूल को छोडकर फूलबाग में राजनैतिक जमीन तलाश रहे है। इसके अलावा अग्रवाल की किस्मत का ताला-चाभी अभी तक काम नहीं कर पाया। हालांकि फूलबाग का दामन थामने के बाद अग्रवाल अब टिकट के इंतजार में है, लेकिन देखना होगा की इस इंतजार का फल अजय अग्रवाल को किस तरह मिलेगा।

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