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देश में फिर गरमा रहा आरक्षण मुद्दा. ?

बात की शुरुआत करते है आगामी दिनों में होने वाले दो राज्यों जम्मू कश्मीर और हरियाणा के विधानसभा चुनावों से जिसमे हरियाणा में पिछले एक दशक से भाजपा की सरकार है और जम्मू में भी धारा 370 हटने के बाद पहली बार चुनाव हो रहे है वही इसी बीच चर्चा लोकसभा चुनावों की करे तो भाजपा इस बार बहुमत के आंकड़े से भी थोड़ा पीछे रही हालांकि एंडीए गठबंधन से केंद्र में भाजपा ने तीसरी बार सरकार बनाई ।

2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष भी मजबूत स्थिति में आया , दरअसल इसकी वजह मोदी सरकार के खिलाफ एक कैंपेन चलाया गया की अगर इस बार देश में फिर भाजपा की सरकार आई तो संविधान को खत्म कर दिया जाएगा , संविधान खतरे में है , आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा । इस बात पर भाजपा का प्रयास आमजन को समझाने में असफल रहा और भाजपा को इसका बड़ा नुकसान हुआ । और विपक्ष को इन परिणामों से ताकत मिली , अब विपक्ष इस मुद्दे को आगे भी छोड़ने के मूड में नहीं है , आगामी दो राज्यों के विधानसभा चुनावों में विपक्ष एस सी एस टी के साथ मिलकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण कोटा प्रणाली में उप वर्गीकरण पर दिए फैसले पर केंद्र सरकार द्वारा कानून बना कर निष्प्रभावी बनाने के लिए मुद्दा बनाने की तैयारी में है , इस मामले में दलित आदिवासी संगठनों के राष्ट्रीय परिसंघ एन ए सी डी ए ओ आर ने 21अगस्त को भारत बन्द का ऐलान किया है ।

पहले एक बार आपको बताते है आखिर कोटा प्रणाणी में उप वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला दिया इस पर आपत्ति क्या है ,

सुप्रीम कोर्ट ने एक अगस्त को इस मामले में सात जजों की पीठ में इस पर जो निर्णय हुआ उसमे फैसला सुनाया गया की अनुसूचित जनजाति यानी एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण सकारात्मक कार्रवाई का लाभ बढ़ाने के लिए स्वीकार्य है। हालांकि, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि यह राजनीतिक लाभ के बजाय “मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य डेटा” पर आधारित होना चाहिए।

एक अलग लेकिन सहमति वाले फैसले में, न्यायमूर्ति बीआर गवई ने राज्यों से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के भीतर “क्रीमी लेयर” (पिछड़े वर्ग के धनी और अधिक उन्नत सदस्य) की पहचान करने और उन्हें आरक्षण लाभों से बाहर करने के लिए एक नीति तैयार करने का आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि सच्ची समानता हासिल करने के लिए यह महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, पंकज मिथल और सतीश चंद्र शर्मा ने बहुमत से सहमति जताई जबकि न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी ने असहमति जताई।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद जहां सियासी चर्चाएं भी शुरू हो गई वही दलित और आदिवासी संगठनों ने भी इसका विरोध किया है उनका कहना है निर्णय उनके सवैंधनिक अधिकारो को प्रभावित करता है । इस निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिए केंद्र सरकार पर कानून बनाए जाने की मांग की जा रही है ,

राजनितकारो का मानना है विपक्ष इस मुद्दे को छोड़ना नहीं चाहेगा क्युकी जिस तरह लोकसभा चुनावों में उन्हें मोदी सरकार के खिलाफ संविधान खत्म करने के आरोप लगाते हुए प्रचार कर फायदा उठाया अब आगामी दिनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी वह केंद्र की भाजपा सरकार को घेरकर इसका चुनावी लाभ लेने में कसर नहीं छोड़ेगी देखना होगा इस पर भाजपा क्या रणनीति बनाती है जिससे वह एस सी एस टी और आदिवासी समुदाय से जुड़े इस बड़े वर्ग को संतुष्ट कर पाएगी ।

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