केंद्र की मोदी सरकार द्वारा एक देश एक चुनाव के तहत कदम बढ़ाते हुए इसे लोकसभा में पेश किया जिसमे पक्ष में 269 और विपक्ष में 139 वोट पड़े ..इस बिल को फिलहाल जेपीसी में भेज दिया गया है । अब ये बिल जेपीसी के पास है और जेपीसी में इस बिल पर विस्तृत चर्चा होगी, लेकिन चर्चा के बाद भी ये बिल कानून बन ही जाएगा, इसकी फिलहाल कोई गारंटी नहीं है. क्योंकि ये बिल सामान्य बिल न होकर संविधान संशोधन विधेयक है, जिसके लिए सरकार को लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही सदनों में दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी और ये नंबर फिलहाल बीजेपी के साथ नहीं है, तो आशंका इस बात की है कि इस बार भी एक देश-एक चुनाव की बात सिर्फ बात ही रह जाएगी और ये बिल भी ठंडे बस्ते में ही चला जाएगा ऐसा अंदेशा है ।
आपको याद होगा 2019 में पीएम मोदी ने लाल किले से अपने भाषण में ही बोल दिया कि एक देश-एक चुनाव हो और इस दिशा में देश के पूर्व राष्ट्रपति रहे रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बाकायदा एक कमेटी भी बना दी गई, जिसने एक देश-एक चुनाव की समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट पेश कर दी और उस रिपोर्ट के आधार पर ही कैबिनेट ने एक देश-एक चुनाव के बिल को मंजूरी दे दी, जिसके बाद 17 दिसंबर को केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने उसे लोकसभा में पेश कर दिया…
अब आपको थोड़ा पीछे लेकर चलते आजादी के बाद हुए चुनावो में 1952 से 1967 तक एक देश-एक चुनाव होते थे जब उस समय यह हो सकता तो ये अब क्यों नहीं हो सकता…
आजादी के बाद देश में पहली बार आम चुनाव साल 1951-52 में हुए थे और तब देश में लोकसभा के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव हुए थे. ये सिलसिला साल 1967 तक लगातार चलता रहा. यानी कि 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे. हालांकि, इस बीच एक अपवाद भी था और वो था केरल. इंदिरा गांधी ने साल 1959 में ही केरल की चुनी हुई सरकार को भंग कर दिया था. तब 1960 में केरल में अलग से विधानसभा के चुनाव हुए. 1962 में जब देश में आम चुनाव और दूसरे राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए तब भी केरल में चुनाव नहीं करवाए गए क्योंकि तब उस विधानसभा को काम करते महज दो साल ही हो रहे थे…
इसके बाद 1964 में केरल में फिर से राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 1965 में फिर से चुनाव हुए, लेकिन सरकार का गठन नहीं हुआ बल्कि राष्ट्रपति शासन ही चलता रहा और जब 1967 में फिर से देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हुए तो केरल में भी साथ ही चुनाव हुए और पूरा देश-प्रदेश एक साथ एक चुनाव में आ गया, लेकिन चुनाव होने के एक साल के अंदर ही इंदिरा गांधी के एक फैसले से जो सिलसिला टूटा तो फिर उसे अब तक कोई भी सरकार कायम नहीं कर पाई है.
1968 की शुरुआत में ही इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह को बर्खास्त कर दिया और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया. इसके बाद विधानसभा को भी भंग कर दिया गया. कुछ ऐसा ही हाल पंजाब का भी था, जहां सरकार भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया और फिर विधानसभा भी भंग कर दी गई. पश्चिम बंगाल में भी इंदिरा गांधी ने यही किया. कुछ और भी राज्यों में इंदिरा गांधी ने चुनी हुई सरकारों को भंग किया, जिसकी वजह से विधानसभा के चुनाव लोकसभा से अलग हो गए. रही सही कसर लोकसभा में भी इंदिरा गांधी ने पूरी कर दी और लोकसभा के जो चुनाव 1972 में होने चाहिए थे, उसे भी एक साल पहले 1971 में ही करवा दिया. कुल मिलाकर नेहरू के जमाने से जो सिलसिला चला आ रहा था लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव का, उसे इंदिरा ने तोड़ दिया,
अब इस संशोधन बिल लाने से पहले इस पर कुल 47 राजनीतिक दलों ने अपनी राय प्रस्तुत की। इनमें से 32 दलों ने एक साथ चुनाव का समर्थन किया, जिसमें संसाधनों के बेहतर उपयोग और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने जैसे लाभों का हवाला दिया गया। हालाँकि, 15 दलों ने चिंता व्यक्त की, संभावित लोकतंत्र विरोधी प्रभावों और क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर जाने की चिंता जताई।
अब आपको बताते है इसके क्या है फायदे पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने मार्च 2024 के एक बयान में उल्लेख किया कि एक साथ चुनाव कराने की योजना से राष्ट्रीय आय का 1.5% बचाने में मदद मिलेगी। मार्च 2024 को समाप्त होने वाले वर्ष के आर्थिक आंकड़ों के आधार पर, यह 4.5 लाख करोड़ रुपये (लगभग 52 बिलियन डॉलर) की बचत तक का जिक्र किया गया ।
आपको यह भी बता देश में 1952 से 1923 तक हर साल औसतन छह चुनाव हुए है जिसका सीधा असर विकास कार्यों पर पड़ता है , चुनाव से पहले आचार संहिता लागू कर दी जाती है जिससे आमजन की परेशानी बढ़ जाती है सारी सरकारी मशीनरी से लेकर सभी जनप्रतिनिधि इसमें लग जाते है , अगर इस बिला को पास कर दिया जाता है तो कामों में बार-बार आने वाली बाधाएं दूर हो जाएगी. जिससे देश और राज्य का विकास और भी बेहतर तरीके से हो पाएगा.
कुल मिलाकर एक देश एक चुनाव फिलहाल कह सकते है अभी जेपीसी से आने के बाद फिर इस पर चर्चा होगी जिसे लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत पास कराना होगा।
कुल मिलाकर कह सकते है “वन नेशन, वन इलेक्शन” एक ऐसा विचार है जो भारतीय चुनाव प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। इसके फायदे स्पष्ट हैं-समय और धन की बचत के साथ ही प्रशासनिक दक्षता और राजनीतिक स्थिरता भी होगी जिसका आमजन को फायदा मिलेगा , लेकिन इसे लागू करने के लिए संवैधानिक, तकनीकी और प्रशासनिक चुनौतियों से भी गुजरना होगा , यह आवश्यक है कि इस प्रस्ताव को व्यापक चर्चा और सभी हितधारकों की सहमति के बाद ही लागू किया जाए क्योंकि क्षेत्रीय राजनैतिक दलों में भी अपने अस्तित्व को लेकर चिंताएं स्वाभाविक है , फिर भी यह कदम भारतीय लोकतंत्र में सुधार की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है ।