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स‍िर्फ 10 म‍िनट और…. जो पत‍ि 30 साल से लगा रहा था अदालत के चक्‍कर, सुप्रीम कोर्ट ने क‍िया बरी

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 1993 में अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में दर्ज एक पति की सजा को रद्द कर दिया है. पत‍ि को बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने आरोपी द्वारा लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान ज‍िस पीड़ा का सहन क‍िया उसका भी ज‍िक्र अपने आदेश में क‍िया है. पीठ ने कहा क‍ि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं ही सजा दे सकती है. इस मामले में बिल्कुल यही हुआ है. इस अदालत को अपरिहार्य निष्कर्ष पर पहुंचने में 10 मिनट से अधिक समय नहीं लगा कि अपीलकर्ता को अपराध के लिए दोषी ठहराया जाए. आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय कानून में टिकाऊ नहीं है. अपीलकर्ता के लिए कठिन परीक्षा 1993 में कुछ समय के लिए शुरू हुई और 2024 में समाप्त हो रही है, यानी लगभग 30 साल की पीड़ा के बाद.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह इस तथ्य के प्रति सचेत है कि एक युवा महिला अपने 6 महीने के शिशु को छोड़कर मर गई और कोई भी अपराध बख्शा नहीं जाना चाहिए. कोर्ट ने कहा क‍ि इसके साथ ही आरोपी का अपराध कानून के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए. वर्ष 2008 में पारित पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ आरोपी पति द्वारा दायर अपील की अनुमति देते समय ये टिप्पणियां आईं. पति पर नवंबर 1993 में अपनी पत्नी को परेशान करने और उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप लगाया गया था.

1998 में एक ट्रायल कोर्ट ने पति को दोषी ठहराया और बाद में हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत पति को दोषी ठहराने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. शीर्ष अदालत ने कहा कि आरोपी पति के हाथों मृत महिला का कथित उत्पीड़न ही आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने समझाया क‍ि इसके लिए एक सक्रिय कार्य या प्रत्यक्ष कार्य की भी आवश्यकता होती है, जिसके कारण मृतक ने आत्महत्या की. मन की बात के घटक को स्पष्ट रूप से मौजूद नहीं माना जा सकता है, लेकिन दृश्यमान और विशिष्ट होना चाहिए.

धारा 113 ए को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने क्‍या कहा?
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मौजूदा मामले में पति को दोषी ठहराने के लिए पुख्ता सबूतों का अभाव है. प्रासंगिक रूप से पीठ ने रेखांकित किया कि केवल यह तथ्य कि मृतक की शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या से मृत्यु हो गई भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 ए (एक विवाहित महिला द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने की धारणा) के तहत धारणा स्वचालित रूप से लागू नहीं होगी.

क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का सबूत दिखाना होगा: सुप्रीम कोर्ट
पीठ ने कहा क‍ि बल्कि अदालतों को ऐसे मामलों में कथित क्रूरता के सबूतों का आकलन करने में बहुत सावधान और सतर्क रहना होगा जो एक कठिन काम हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा क‍ि धारा 113ए के तहत अनुमान लगाने से पहले अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का सबूत दिखाना होगा. यदि यह पता चलता है कि आत्महत्या करने वाला पीड़ित सामान्य अशांति, कलह और घरेलू जीवन में मतभेदों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील था, जो काफी आम है जिस समाज में पीड़ित था और इस तरह की नाराजगी, कलह और मतभेदों से यह उम्मीद नहीं की जाती थी कि किसी दिए गए समाज में एक समान परिस्थिति वाले व्यक्ति को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया जाएगा. अदालत की अंतरात्मा यह मानने से संतुष्ट नहीं होगी कि आरोपी पर अपराध के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया है. आत्महत्या का दोषी था. इसलिए, आरोपी व्यक्ति की सजा के खिलाफ अपील की अनुमति दी गई और उसे अपराध से बरी कर दिया गया.

Tags: Husband, Supreme Court

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